Thursday, November 10, 2011

कहीं जरा सा...कहानी संग्रह की प्रथम कहानी 'अपील'

"अवस्थी साहब, आपको साहब याद कर रहे हैं।" मैं अभी आकर अपनी सीट पर बैठा था। ब्रीफकेस खोल ही रहा था कि चपरासी ने आकर कहा।


मैं अपनी नेकटाई ठीक करता हुआ साहब के केबिन में दाखिल हुआ, "आपने बुलाया सर?"

"हाँ मिस्टर अवस्थी, प्लीज़ कम इन, आइए, मैं आपको ही याद कर रहा था, बैठिए।" उन्होंने अपने सामने पड़ी कुर्सी की ओर इशारा किया। मैं धन्यवाद कहता हुआ उस कुर्सी पर बैठ गया।

"मिस्टर अवस्थी, यह तो आपको पता ही है कि किस तरह से सड़क दुर्घटना में मिस्टर श्रेष्ठ का देहाँत हो गया। अभी मेरे पास कंपनी के मुख्य महाप्रबंधक का फ़ोन आया था। वह आज शाम को ही मिस्टर श्रेष्ठ के यहाँ जाकर उनके परिवार को मुआवज़ा देना चाहते हैं।" साहब ने एक सफ़ेद काग़ज़ जिस पर कुछ नोट किया हुआ था, पेपरवेट के नीचे से निकालते हुए कहा।

"मेरे लिए क्या आदेश है सर?" मैंने अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए पूछा।

"मैं चाहता हूँ कि आप कंपनी के क्रय विभाग से पूरी 'डिटेल` ले कर और रोकड़ विभाग को आदेश देकर यह कार्यवाही पूरी करें और मिस्टर श्रेष्ठ की विधवा के नाम से तीन लाख रुपए का चेक तैयार करवाएँ।" साहब ने अपनी बात पूरी कर दी थी।

"लेकिन सर, इसमें कोई कानूनी अड़चन...?"

"नहीं, नहीं,'' उन्होंने मेरी बात को बीच में काटते हुए कहा, "ड्यूटी के दौरान इस तरह की मृत्यु पर ऐसा प्रावधान है। आपसे इतना ही कहना था कि आप यह काम जल्दी निपटा दें ताकि दोपहर बाद चैक तैयार हो जाए।"

"ठीक है, मैं अभी यह काम करवा देता हूँ।" मैं उठकर केबिन के बाहर आ गया। जल्दी-जल्दी मैंने साहब के निर्देशानुसार पत्र तैयार करवाए और फिर हस्ताक्षर हेतु उनके पास भेज दिए।

यह एक निजी और बड़ी कंपनी है। लगभग आठ सौ कर्मचारियों और मज़दूरों की इस कंपनी में मैं कार्मिक विभाग में काम करता हूँ। मिस्टर श्रेष्ठ इस कंपनी के क्रय-अधिकारी थे और मुख्य महाप्रबंधक के रिश्तेदार भी। परसों मंगलवार को वह कोई बड़ी मशीन क्रय करने गए थे। वापस लौटते समय उनकी कार का एक्सीडेंट हो गया था और उनके ड्राइवर शेरसिंह की घटना स्थल पर ही मृत्यु हो गई थी। मिस्टर श्रेष्ठ का भी दो घंटे बाद अस्पताल के आपातकालीन वार्ड में देहांत हो गया था।

कल दोनों की अंत्येष्टि की गई और कंपनी का काम-काज नहीं हुआ था। आज भी कंपनी में माहौल गमगीन ही था, परंतु फिर भी काम तो रोका नहीं जा सकता था। मैं बैठा-बैठा सोच रहा था कि मिस्टर श्रेष्ठ का वेतन प्रतिमाह लगभग दस हज़ार रुपए रहा था। उनके परिवार में पत्नी के अलावा दो लड़के और एक लड़की हैं। दोनों लड़के डाक्टर बन गए हैं और लड़की अभी छोटी है। भरा-पूरा घर है, किसी भी प्रकार के सुख-साधन की कमी नहीं। मिस्टर श्रेष्ठ की आयु भी पचपन वर्ष के लगभग थी अर्थात सेवानिवृत्ति में तीन वर्ष बाकी थे।

लेकिन उनके ड्राइवर शेरसिंह को तो कंपनी में अभी दस वर्ष भी पूरे नहीं हुए थे और उसकी तनख़्वाह मात्र दो हज़ार रुपए से कुछ ही ज़्यादा थी। उसके भी तीन बच्चे थे और सब के सब दस वर्ष से नीचे की उम्र के। फिर शेरसिंह स्वयं भी अभी तीस का नहीं हुआ था। भविष्य बुनने की उसकी यही तो उम्र थी।

आज सुबह ही शेरसिंह का छोटा भाई मेरे घर आया था। मेरे मकान से तीन मकान छोड़कर चौथे मकान की दूसरी मंज़िल पर शेरसिंह किराए पर रहता था और पाँच सौ रुपए तो वह उस डेढ़ कमरे और एक रसोई का किराया देता था। साथ में यह छोटा भाई भी उसके पास था जो ग्रेजुएट मगर बेरोज़गार था। ट्यूशन पढ़ाकर छ:-सात सौ रुपए प्रति माह कमा लेता था। इस तरह से परिवार को आर्थिक मदद तो मिल ही जाती थी और उसका वक्त भी गुज़र जाता था। शेरसिंह की तरह उसका छोटा भाई रामसिंह भी बेहद शरीफ़ और समझदार था। आज जब सुबह वह आया था तो उसका चेहरा उतरा हुआ था और यों लग रहा था कि वह कल पूरी रात सो नहीं पाया था। उसके थरथराते होंठ और उसकी आँखों में झाँकता खालीपन किसी भी इंसान को द्रवित करने के लिए काफी था।

उसने बताया था कि अभी सुबह-सुबह दोनों ब्याही बहनें अपने परिवार के साथ आ पहुँची हैं। दोपहर का खाना खिलाने को घर में अनाज का एक दाना भी नहीं है। मैंने चुपचाप नज़दीक बैठी अपनी पत्नी को इशारा किया। वह रसोई में गई और फ्रिज में से ब्रेड का एक पैकेट, कच्ची सब्ज़ी आदि एक थैले में डाल लाई। मैंने रामसिंह को वह थैला और जेब में हाथ डालने पर बाहर आए रुपए उसके हाथ में पकड़ाते हुए कहा, "देखो, शर्म नहीं करना। अभी ये रुपए जितने भी हैं, रख लो, शाम का खाना यहाँ से बन जाएगा। मैं देखता हूँ और क्या हो सकता है?"

पता नहीं, उसको क्या सूझा? मेरे और मेरी पत्नी दोनों के पैर छूकर, हाथ जोड़कर अपनी अश्रुपूरित आँखों को पोंछता हुआ झोला हाथ में लेकर वह दरवाज़े के बाहर हो गया। मैं बहुत देर तक दरवाज़े पर हिल रहे पर्दे को देखता रहा था।

"हैलो अवस्थी," किसी ने मेरी तंद्रा को भंग किया। आँखें उठाकर देखा, मेहता खड़ा था।

"अरे मेहता, आओ बैठो। मना आए छुट्टी? कैसा रहा तुम्हारा टूर? नैनीताल की झीलों का पानी सूख तो नहीं गया?" मैंने उससे पूछा।

"कहाँ यार, छुट्टी का सारा मज़ा किरकिरा हो गया। लाडले को वहाँ पहुँचते ही ठंड लग गई। इलाज करवाया, घूमना फिरना ज़्यादा हुआ ही नहीं पर..." उसकी बात पूरी भी नहीं हुई थी कि इस बीच मैंने इंटरकॉम पर कैंटीन ब्वॉय से चाय लाने को कह दिया।

"पर अवस्थी, यहाँ यह श्रेष्ठ का एक्सीडेंट...?" उसने फिर बात शुरू की थी।

"जो ईश्वर को मंजूर! भला उसके आगे कोई ठहरा है क्या?" मैंने दोनों हाथ पहले ऊपर उठाते और फिर नीचे गिराते हुए कहा।

"मैंने सुना है, शाम को मिस्टर बतरा आने वाले हैं?" मेहता ने मुझसे जानकारी चाही।

"हाँ, वह मिस्टर श्रेष्ठ के यहाँ जाकर मुआवज़े का चेक देने वाले हैं। सारा स्टाफ़ साथ में जाएगा। और सुन, श्रेष्ठ के साथ-साथ उसके ड्राइवर शेरसिंह का भी तो देहांत हुआ है।" मैंने मेहता को अपने विचार बताने की शृंखला में एक कड़ी बनाते हुए कहा।

"अच्छा, मुझे नहीं मालूम!" वह थोड़ा आश्चर्य में था।

"तुझे नहीं मालूम?" अब चौंकने की बारी मेरी थी। "तेरे विभाग के दो कर्मचारी, एक एक्सीडेंट में, एक ही गाड़ी में, एक ही दिन मर गए। उनका दाह-संस्कार एक ही दिन हुआ और तू कहता है, तुझे नहीं मालूम! आश्चर्य!! घोर आश्चर्य!!!" मैंने लगभग चिल्लाते हुए कहा।

"लेकिन, मेरा इसमें क्या कुसूर है? मेरे विभाग में सभी श्रेष्ठ की बात कर रहे हैं। शेरसिंह की मृत्यु की बात पहली बार मैं तेरे मुँह से ही सुन रहा हूँ।"

मैं स्तब्ध था और सोचने लगा था। मिस्टर श्रेष्ठ मुख्य महाप्रबंधक मिस्टर बतरा के रिश्ते में थे, उनकी बात सब कर रहे हैं? बेचारे शेरसिंह की मृत्यु पर उसके अपने विभाग में कोई चर्चा नहीं। क्या मूल्य इतने गिर गए हैं? तीन लाख रुपए का चैक मिस्टर श्रेष्ठ के घर पहुँचाने सारा स्टाफ जाएगा और शेरसिंह के गरीब और बिलखते परिवार को मुआवज़ा दिए जाने की चर्चा तक नहीं? क्रय विभाग में साठ के स्टाफ़ में से किसी एक ने भी शेरसिंह का ज़िक्र तक नहीं किया? क्या सब के सब पत्थर-दिल हो गए हैं, क्या उनकी संवेदनाएँ लुप्त हो गई हैं?

"अवस्थी, अवस्थी! क्या सोच रहा है यार? यह चाय ठंडी हो रही है।" मेहता ने मेरे आगे प्याली खिसकाते हुए कहा।

मैंने चाय का कप हाथ में लिया और धीरे-धीरे सिप करने लगा। चाय पीते-पीते मैंने मेहता को शेरसिंह के परिवार के बारे में, उसकी आर्थिक स्थिति के बारे में बताया, सुबह उसके भाई रामसिंह की जो हालत देखी थी, उसके बारे में बताया, उसके आँसूओं के बारे में बताया।

"हमें कुछ करना चाहिए।" मैंने मेहता से कहा, "जिस आदमी के घर में रोटी के लाले पड़ रहे हों, उसकी तरफ़ किसी का ख़याल नहीं। मिस्टर श्रेष्ठ के यहाँ मुआवज़ा इतनी जल्दी, जहाँ पर सब-कुछ है और गरीब की गरीबी का ध्यान किसी को नहीं। कोई उनकी आवश्यकताओं को महसूस नहीं कर रहा।"

हम दोनों ने सलाह-मशविरा किया और फिर मेहता ने अपने विभाग में जाकर एक प्रार्थना-पत्र निकाला जिसमें मिस्टर श्रेष्ठ और ड्राइवर शेरसिंह के परिवार की आर्थिक मदद करने के लिए अपील की गई। चूँकि मेहता यूनियन का लीडर था, उसकी यह अपील काम कर गई। शाम के चार बजे तक उसने पूरी कंपनी से पचास हज़ार रुपए एकत्र कर लिए।

शाम को सभी लोग मिस्टर श्रेष्ठ के यहाँ इकट्ठा हुए। मुख्य महाप्रबंधक ने जब तीन लाख रुपए का चेक उनकी विधवा को दे दिया तब मेहता और मैं दोनों मिलकर मिस्टर बतरा के पास गए और उन्हें पच्चीस हज़ार रुपए नगद देकर कहा, "यह हम सब कर्मचारियों की ओर से मिस्टर श्रेष्ठ के परिवार के लिए दे दीजिए।" साथ ही हमने उन्हें शेरसिंह की मृत्यु के बारे में याद दिलाया और प्रार्थना की कि आप स्वयं चलकर शेरसिंह की पत्नी को यह शेष पच्चीस हज़ार रुपए दीजिए और मुआवज़ा भी अलग से।

मिस्टर बतरा के लिए चौंकना लाजिमी था, फिर भी उन्होंने हमारे इस कार्य की भूरी-भूरी प्रशंसा की और कुछ देर बाद ही वह हम लोगों के साथ शेरसिंह के घर भी आ पहुँचे। रास्ते में वह अपने निजी सचिव से भी इस बारे में बातचीत करते रहे। क्योंकि शेरसिंह का घर और कोई नहीं जानता था इसलिए मैं उनकी गाड़ी में ही बैठ गया था।

शेरसिंह की विधवा को उन्होंने कर्मचारियों द्वारा एकत्रित की गई राशि थमाते हुए कहा, "मैं अपनी तरफ़ से भी तीन हज़ार रुपए इस मदद में और जोड़ रहा हूँ। मुआवज़े की राशि का चेक भी इन्हें कल शाम तक ज़रूर मिल जाएगा जो एक लाख रुपए का होगा।" साथ ही उन्होंने शेरसिंह के छोटे भाई रामसिंह को बतौर लिपिक कंपनी में नियुक्त करने की सूचना दी।

हम सब गद्गद थे। आँखों में खुशी के आँसू थे। मेहता का हाथ मैंने कसकर पकड़ लिया था।

Thursday, September 24, 2009

कुलदीप जनसेवी 'कहीं जरा सा...' के फ्लैप पर

आडंबर युक्‍त समाज क्‍यों ? पारदर्शिता से परहेज क्‍यों ? उपेक्षित और कमजोर तबका पीडि़त क्‍यों ? सत्‍य से डरना किसलिए ? कट्टरता के मायने क्‍या ? आतंक किसको किससे ? धर्म, दुश्‍मनी का जनक कब से ? इन्‍हीं सवालों को उठाती हैं 'कहीं जरा सा...' की कहानियां । प्रकृति के प्रति रुझान, गीत-संगीत से सामीप्‍य और बचपन की उम्र से प्रेम इन कहानियों में देखा जा सकता है ।

मुकेश पोपली की कहानियों को पढ़ने से शांत मन उद्वेलित होता है । अपने आप से प्रश्‍न करने की इच्‍छा होती है । कृत्रिमता से परे समाज के निर्माण में योगदान करने का संकल्‍प हृदय में जन्‍म लेने लगता है । 'कहीं जरा सा...' की कहानियां मानवीय अनुभूतियों को जगाती हुई सम्‍भावनाओं को उजागर करती हैं ।

कुलदीप जनसेवी

Tuesday, September 22, 2009

रतन श्रीवास्‍तव कहीं जरा सा के फ्लैप पर

समाज के दबे-कुचले वर्गों के प्रति संवेदना, उनके लिए कुछ कर गुजरने की आकांक्षा, सामाजिक विद्रूपता, आतंकवाद का खौफ, मन की कई परतों में छिपा स्‍नेह, अपेक्षाओं के पूरे न होने का दर्द आदि को कथ्‍य बनाकर लिखी गयीं मुकेश पोपली की कहानियां मन को मोहती हैं और पाठक को चिंतन के लिए विवश करती हैं । सत्‍य को गुफा में कैद कर असत्‍य का आवरण लपेटे हम कब तक अपने भीतर की आवाज को दबाते हुए कृत्रिमता को ही सब-कुछ समझते रहेंगे । 'कहीं जरा सा' में बहुत सारी सम्‍भावनाएं छिपी हुई हैं ।

रतन श्रीवास्‍तव

Monday, September 21, 2009

संवेदनात्‍मक बारीकियों की कहानियां

'कहीं जरा सा' की भूमिका में भगवान अटलानी -

अनेक वर्षों से लिखते आ रहे किसी युवा लेखक की धीमी रफ्तार से किन्‍तु निरन्‍तर जारी सृजनशीलता जब संग्रह के रूप में पाठकों के सामने आती है तो एक नये मकान के खुले खिड़की दरवाजों में से गुजरती हवा के ताजे झोंका का अहसास होता है । बिम्‍बों, संरचनाओं, विधान व पक्षधरता के जो दायरे स्‍थापित लेखक अपने चारों ओर बनाते हैं, सुधि पाठक उनसे परिचित होता है । सृजन के आयाम से परिचय के कारण कई बार ऐसे लेखक की रचना में जो नहीं होता, उसे भी निरूपित करने की चेष्‍टा होती है । किन्‍तु पहली बार संग्रह के माध्‍यम से सामने आने वाले लेखक को उसकी रचनाओं की पृष्‍ठभूमि में ज्‍यों का त्‍यों देखने, समझने, आंकने तथा विश्‍लेषित करने की सुविधा होती है ।
मुकेश पोपली के पहले कहानी संग्रह 'कहीं जरा सा...' की कहानियां पढ़कर संवेदनात्‍मक बारीकियों के अनेक चित्र सामने आते हैं । इन कहानियों में है रुतबा हासिल व्‍यक्ति और आम आदमी के साथ समान विपरीत स्थितियों में दृष्टिगोचर होता भिन्‍न व्‍यवहार (अपील), आतंकवादी गतिविधियों के अनछुये पहलू (कहीं जरा सा...), अहम् को छोड़कर पत्‍नी के साथ रिश्‍ते सुधारने का संकल्‍प (डुप्‍लीकेट चाबी), चारित्रिक फिसलन के कगार से लौटने की प्रक्रिया (बैसाखी), बैंक से लिये गय कर्ज की अदायगी न करने वाले गरीब ग्रामीण की विवशताओं का हृदयस्‍पर्शी आकलन (बनता हुआ पुल), संतानहीनता के आधार पर पुनर्विवाह करने के आकांक्षी पति से संवाद की तैयारी (पेपरवेट), मृत पति के स्‍वप्‍नों को साकार करते हुए प्रकृति से सामीप्‍य बनाये रखने की चेष्‍टा (मौन-संगीत), अम्‍मा के बिना बताये घर से चले जाने के बाद सामाजिक ग्रन्थियों को उघाड़ता रोचक विवरण (हसन मियां की अम्‍मा), वर्षों तलाकशुदा जीवन व्‍यतीत करने के बाद पलटकर लेखा जोखा करने के उपरान्‍त फिर साथ जीने का निर्णय (तलाक के तेरह साल बाद), प्रेमिका और उससे जन्‍मे अवैध पुत्र को दिये गये संरक्षण की सटीक बुनावट (सोया हुआ शैतान) तथा आतंकवाद जनित दहशत में गुजरते जीवन की आवेगमय झलक (खौफ) ।
इस संग्रह में शामिल सभी कहानियों में जाना पहचाना परिवेश है किन्‍तु कहानियों में जिन बिन्‍दुओं को रेखांकित किया गया है वे सामान्‍य से हटकर हैं । अपने-परायों के दु:खों के एकाकार होने की अन्‍तर्धारा सभी कहानियों में निरन्‍तर प्रवाहित प्रतीत होती है । मानवीय सरोकारों के साथ पीड़ायें बांटने की कोशिश करती इस संग्रह में शामिल कहानियां बैसाखी, हसन मियां की अम्‍मा, तलाक के तेरह साल बाद, सोया हुआ शैतान और खौफ लेखकीय सम्‍भावनाओं की प्रबल संकेतक हैं । मुझे विश्‍वास है कि मुकेश पोपली के प्रथम कहानी संग्रह 'कहीं जरा सा...' का हिन्‍दी जगत में भरपूर स्‍वागत किया जायेगा ।

Sunday, September 13, 2009

हिंदी दिवस

आज नई दुनिया में, नवभारत टाइम्‍स में और अनेक समाचार पत्रों में हिंदी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है । अच्‍छा लगता है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो रहा है, चाहे उसका माध्‍यम बॉलीवुड हो या प्रकाशन के अंतर्गत पत्र-पत्रिकाएं ।लेकिन मैं एक बात और कहना चाहूंगा कि मुझे इस बात से और भी खुशी होती है कि इंटरनेट पर हिंदी का प्रयोग फैलता ही जा रहा है और बहुत से ब्‍लॉग इस बारे में लिखते रहते हैं । हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसने सबको अपना बनाया है और सब उसमें शामिल होकर खुश भी हैं । हों भी क्‍यों न, आखिर अनेकता में एकता के प्रतीक हिंदुस्‍तान की राष्‍ट्रभाषा जो है ।आइए 14 सितंबर 2009 के उगते सूरज को प्रणाम करते हुए हिंदी में अधिक से अधिक कार्य करने की प्रतिज्ञा करें और अपने देश के विकास में योगदान दें । ठीक कह रहा हूं न,

Thursday, August 6, 2009

एक परिचय

साहित्यिक मित्रो,

‘कहीं जरा सा...’ मेरा प्रथम कहानी संग्रह है जो वर्ष 1998 का प्रकाशन है । इस कहानी-संग्रह का विमोचन बीकानेर के विख्‍यात कहानीकार और उपन्‍यासकार श्री यादवेंद्र शर्मा ‘चन्‍द्र‘ ने किया था । नेगचार प्रकाशन, पवनपुरी, बीकानेर द्वारा प्रकाशित इस कहानी संकलन की भूमिका हिंदी के जाने-माने हस्‍ताक्षर और मीरा पुरस्‍कार से सम्‍मानित श्री भगवान अटलानी ने लिखी । इस संग्रह के लिए राजस्‍थान साहित्‍य अकादमी, उदयपुर ने छपी हुई पुस्‍तकों के लिए अनुदान योजना के अंतर्गत अनुदान भी प्रदान किया । 5 मार्च 1999 को इस पुस्‍तक का विमोचन बीकानेर के आनंद निकेतन में किया गया और इस समारोह की अध्‍यक्षता सुप्रसिद्ध हिंदी आलोचक डॉ. देवी प्रसाद गुप्‍त ने की । मेरे प्रिय मित्रों में से एक कुलदीप जनसेवी ने अपनी सेवाएँ अर्पित कर और नीरज दईया ने मेरी कहानियों को पुस्‍तक का रूप प्रदान करने में जो अपनापन दर्शाया, उसके लिए मैं सदा उनका आभारी रहूंगा ।
इस पुस्‍तक से जुड़ी अनेक घटनाएँ हैं, अनेक विचार हैं जिन्‍हें मैं समय-समय पर आपके समक्ष प्रस्‍तुत करता रहूंगा । 11 कहानियों का मेरा यह संकलन आपको रुचिकर लगेगा, ऐसी मैं प्रत्‍याशा करता हूँ ।

कहीं जरा सा

साहित्यिक मित्रो,

'कहीं जरा सा' मेरे प्रथम कहानी संग्रह का शीर्षक है ।