आडंबर युक्त समाज क्यों ? पारदर्शिता से परहेज क्यों ? उपेक्षित और कमजोर तबका पीडि़त क्यों ? सत्य से डरना किसलिए ? कट्टरता के मायने क्या ? आतंक किसको किससे ? धर्म, दुश्मनी का जनक कब से ? इन्हीं सवालों को उठाती हैं 'कहीं जरा सा...' की कहानियां । प्रकृति के प्रति रुझान, गीत-संगीत से सामीप्य और बचपन की उम्र से प्रेम इन कहानियों में देखा जा सकता है ।
मुकेश पोपली की कहानियों को पढ़ने से शांत मन उद्वेलित होता है । अपने आप से प्रश्न करने की इच्छा होती है । कृत्रिमता से परे समाज के निर्माण में योगदान करने का संकल्प हृदय में जन्म लेने लगता है । 'कहीं जरा सा...' की कहानियां मानवीय अनुभूतियों को जगाती हुई सम्भावनाओं को उजागर करती हैं ।
कुलदीप जनसेवी
Thursday, September 24, 2009
Tuesday, September 22, 2009
रतन श्रीवास्तव कहीं जरा सा के फ्लैप पर
समाज के दबे-कुचले वर्गों के प्रति संवेदना, उनके लिए कुछ कर गुजरने की आकांक्षा, सामाजिक विद्रूपता, आतंकवाद का खौफ, मन की कई परतों में छिपा स्नेह, अपेक्षाओं के पूरे न होने का दर्द आदि को कथ्य बनाकर लिखी गयीं मुकेश पोपली की कहानियां मन को मोहती हैं और पाठक को चिंतन के लिए विवश करती हैं । सत्य को गुफा में कैद कर असत्य का आवरण लपेटे हम कब तक अपने भीतर की आवाज को दबाते हुए कृत्रिमता को ही सब-कुछ समझते रहेंगे । 'कहीं जरा सा' में बहुत सारी सम्भावनाएं छिपी हुई हैं ।
रतन श्रीवास्तव
रतन श्रीवास्तव
Monday, September 21, 2009
संवेदनात्मक बारीकियों की कहानियां
'कहीं जरा सा' की भूमिका में भगवान अटलानी -
अनेक वर्षों से लिखते आ रहे किसी युवा लेखक की धीमी रफ्तार से किन्तु निरन्तर जारी सृजनशीलता जब संग्रह के रूप में पाठकों के सामने आती है तो एक नये मकान के खुले खिड़की दरवाजों में से गुजरती हवा के ताजे झोंका का अहसास होता है । बिम्बों, संरचनाओं, विधान व पक्षधरता के जो दायरे स्थापित लेखक अपने चारों ओर बनाते हैं, सुधि पाठक उनसे परिचित होता है । सृजन के आयाम से परिचय के कारण कई बार ऐसे लेखक की रचना में जो नहीं होता, उसे भी निरूपित करने की चेष्टा होती है । किन्तु पहली बार संग्रह के माध्यम से सामने आने वाले लेखक को उसकी रचनाओं की पृष्ठभूमि में ज्यों का त्यों देखने, समझने, आंकने तथा विश्लेषित करने की सुविधा होती है ।
मुकेश पोपली के पहले कहानी संग्रह 'कहीं जरा सा...' की कहानियां पढ़कर संवेदनात्मक बारीकियों के अनेक चित्र सामने आते हैं । इन कहानियों में है रुतबा हासिल व्यक्ति और आम आदमी के साथ समान विपरीत स्थितियों में दृष्टिगोचर होता भिन्न व्यवहार (अपील), आतंकवादी गतिविधियों के अनछुये पहलू (कहीं जरा सा...), अहम् को छोड़कर पत्नी के साथ रिश्ते सुधारने का संकल्प (डुप्लीकेट चाबी), चारित्रिक फिसलन के कगार से लौटने की प्रक्रिया (बैसाखी), बैंक से लिये गय कर्ज की अदायगी न करने वाले गरीब ग्रामीण की विवशताओं का हृदयस्पर्शी आकलन (बनता हुआ पुल), संतानहीनता के आधार पर पुनर्विवाह करने के आकांक्षी पति से संवाद की तैयारी (पेपरवेट), मृत पति के स्वप्नों को साकार करते हुए प्रकृति से सामीप्य बनाये रखने की चेष्टा (मौन-संगीत), अम्मा के बिना बताये घर से चले जाने के बाद सामाजिक ग्रन्थियों को उघाड़ता रोचक विवरण (हसन मियां की अम्मा), वर्षों तलाकशुदा जीवन व्यतीत करने के बाद पलटकर लेखा जोखा करने के उपरान्त फिर साथ जीने का निर्णय (तलाक के तेरह साल बाद), प्रेमिका और उससे जन्मे अवैध पुत्र को दिये गये संरक्षण की सटीक बुनावट (सोया हुआ शैतान) तथा आतंकवाद जनित दहशत में गुजरते जीवन की आवेगमय झलक (खौफ) ।
इस संग्रह में शामिल सभी कहानियों में जाना पहचाना परिवेश है किन्तु कहानियों में जिन बिन्दुओं को रेखांकित किया गया है वे सामान्य से हटकर हैं । अपने-परायों के दु:खों के एकाकार होने की अन्तर्धारा सभी कहानियों में निरन्तर प्रवाहित प्रतीत होती है । मानवीय सरोकारों के साथ पीड़ायें बांटने की कोशिश करती इस संग्रह में शामिल कहानियां बैसाखी, हसन मियां की अम्मा, तलाक के तेरह साल बाद, सोया हुआ शैतान और खौफ लेखकीय सम्भावनाओं की प्रबल संकेतक हैं । मुझे विश्वास है कि मुकेश पोपली के प्रथम कहानी संग्रह 'कहीं जरा सा...' का हिन्दी जगत में भरपूर स्वागत किया जायेगा ।
Sunday, September 13, 2009
हिंदी दिवस
आज नई दुनिया में, नवभारत टाइम्स में और अनेक समाचार पत्रों में हिंदी के बारे में काफी कुछ लिखा गया है । अच्छा लगता है कि हिंदी का प्रचार-प्रसार हो रहा है, चाहे उसका माध्यम बॉलीवुड हो या प्रकाशन के अंतर्गत पत्र-पत्रिकाएं ।लेकिन मैं एक बात और कहना चाहूंगा कि मुझे इस बात से और भी खुशी होती है कि इंटरनेट पर हिंदी का प्रयोग फैलता ही जा रहा है और बहुत से ब्लॉग इस बारे में लिखते रहते हैं । हिंदी ही एक ऐसी भाषा है जिसने सबको अपना बनाया है और सब उसमें शामिल होकर खुश भी हैं । हों भी क्यों न, आखिर अनेकता में एकता के प्रतीक हिंदुस्तान की राष्ट्रभाषा जो है ।आइए 14 सितंबर 2009 के उगते सूरज को प्रणाम करते हुए हिंदी में अधिक से अधिक कार्य करने की प्रतिज्ञा करें और अपने देश के विकास में योगदान दें । ठीक कह रहा हूं न,
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