Tuesday, September 22, 2009

रतन श्रीवास्‍तव कहीं जरा सा के फ्लैप पर

समाज के दबे-कुचले वर्गों के प्रति संवेदना, उनके लिए कुछ कर गुजरने की आकांक्षा, सामाजिक विद्रूपता, आतंकवाद का खौफ, मन की कई परतों में छिपा स्‍नेह, अपेक्षाओं के पूरे न होने का दर्द आदि को कथ्‍य बनाकर लिखी गयीं मुकेश पोपली की कहानियां मन को मोहती हैं और पाठक को चिंतन के लिए विवश करती हैं । सत्‍य को गुफा में कैद कर असत्‍य का आवरण लपेटे हम कब तक अपने भीतर की आवाज को दबाते हुए कृत्रिमता को ही सब-कुछ समझते रहेंगे । 'कहीं जरा सा' में बहुत सारी सम्‍भावनाएं छिपी हुई हैं ।

रतन श्रीवास्‍तव

1 comment:

  1. दशहरे की शुभकामनायें यूं ही
    अच्छी-२ रचनाओं का निर्माण करते रहें...

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