आडंबर युक्त समाज क्यों ? पारदर्शिता से परहेज क्यों ? उपेक्षित और कमजोर तबका पीडि़त क्यों ? सत्य से डरना किसलिए ? कट्टरता के मायने क्या ? आतंक किसको किससे ? धर्म, दुश्मनी का जनक कब से ? इन्हीं सवालों को उठाती हैं 'कहीं जरा सा...' की कहानियां । प्रकृति के प्रति रुझान, गीत-संगीत से सामीप्य और बचपन की उम्र से प्रेम इन कहानियों में देखा जा सकता है ।
मुकेश पोपली की कहानियों को पढ़ने से शांत मन उद्वेलित होता है । अपने आप से प्रश्न करने की इच्छा होती है । कृत्रिमता से परे समाज के निर्माण में योगदान करने का संकल्प हृदय में जन्म लेने लगता है । 'कहीं जरा सा...' की कहानियां मानवीय अनुभूतियों को जगाती हुई सम्भावनाओं को उजागर करती हैं ।
कुलदीप जनसेवी
Thursday, September 24, 2009
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कहीं जरा सा...रोचक
ReplyDeleteजन्मदिन की मुबारकबाद हो और मेरी तरफ़ से शुभकामनाएं स्वीकार करें
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